महाभारत के महान युद्ध औऱ महाकाव्य के बारे मे सभी जानते है जो कौरव औऱ पांडव जो एक दूसरे के भाई थे उनके बीच के महायुद्ध की कथा है । ये हमारा इतिहास भो कहा जाता है । इस युद्ध मे भगवान श्री कृष्ण की एक अत्यंत महत्व भूमिका थी, इस युद्ध के दौरान भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जीवन का सार अपने उपदेशो के रूप मे दिया था जिस हम सब गीता भी कहते है । ये युद्ध द्वापर युग मे हुआ था । इस महाकाव्य के रचना महर्षि वेदव्यास ने की है औऱ इसे भगवान श्री गणेश ने लिखा था ।

इसी महाभारत के महाकाव्य के एक महान योद्धा जो ना केवल एक महान धनुर्रधर थे बल्कि एक महादानी भी थे उनका नाम था कर्ण।उन्हें सूर्यपुत्र भी कहा जाता था क्युकी वो उन्ही के आशीर्वाद से उनकी माता कुंती को मिले थे । सूर्यदेव ने उन्हें एक कवच भी दिया था जो की अभेदए था,दुनिया का कोई अस्त्र-शस्त्र उसे छू नहीं सकता था। कर्ण कौरवो के सबसे बड़े राजकुमार दुर्योधन के घनिष्ठ मित्र थे औऱ इसलिए वो महाभारत के युद्ध मे कौरवो की औऱ से लड़े थे।
वही श्री कृष्ण युद्ध मे अर्जुन के सरथी के रूप मे पांडवो के ऊपर अपनी कृपा दृष्टि बनाये हुए थे । अर्जुन ,कर्ण औऱ श्री कृष्ण का पिछले जन्म से सम्बन्ध है। कुछ ऋण कर्ण पर थे जिस वजह से वो एक महा दानी , महाप्प्राकर्मी होते हुए भी समय समय पर अपमान के पात्र बनकर रह जाते थे।
कहानी :
दम्बोधभव की तपस्या :
एक समय की बात है दम्बोधभव नाम का एक राक्षस था जो सूर्यदेव का भक्त था। उसने सूर्यदेव की कई हज़ार वर्ष तपस्या की औऱ उनसे वरदान पाना चाहा औऱ ऐसा हुआ भी।एक दिन सूर्यदेव उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसके सामने प्रकट हुए औऱ उस राक्षस से कहा के मे तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, मांगो वत्स तुम क्या चाहते हो । दम्बोधभव ने मौका समझकर सीधे अमरता का वरदान मांग लिया लेकिन सूर्यदेव ने उससे कहा के वो ये वरदान उसे नहीं दे सकते क्युकी जिस प्राणी ने इस पृथ्वी पर जन्म लीया है उसकी मृत्यु अवश्य होंगी।
दम्बोधभव को वरदान:
उस राक्षस को ये सुनकर दुख हुआ किन्तु उसने ऐसा वरदान माँगा के सूर्येदेव को ना चाहते हुए भी वो वरदान उसे देना पड़ा। उसने माँगा के उसे कवच प्रापत हो औऱ उन्हें कोई भेद ना पाए, कोई ऐसा करना भी चाहे तो उसके पास एक हज़ार वर्ष की तपस्या का फल हो तब मेरा वो एक कवच टूटे औऱ कवच टूटते ही उस की मृत्यु हो जाये जिसने वो कवच तोड़ा हो। सूर्यदेव ने उसे वरदान देके तथास्तु कहा औऱ वंहा से अंतर्याध्यान हो गए।
. उसके बाद दम्बोधभव खुद को अमर समझ कर अपना आतंक फैलाने लगा औऱ सभी देवता, मनुष्य , सभी जीवो को परेशान करने लगा। उससे परेशान होके सभी देवता औऱ ऋषि नर औऱ नारायण नाम के दो ऋषियों के पास गए जो हज़ारो वर्षो से तपस्या मे लीन थे औऱ उन्हें सब बताया औऱ उनसे मदद मांगी।
नर औऱ नारायण का दबोधभव से युद्ध:
नर औऱ नारायण भगवान विष्णु के अवतार माने जाते है ।नर ने दम्बोधभव को युद्ध के लिए ललकारा औऱ नारायण तपस्या मे लीन हो गए । एक कोमल ऋषि कुमार समझ उस असुर ने नर का मज़ाक बनाया औऱ उन्हें भाग जाने को कहा पर जब नर नहीं माने तो उनमे भयंकर उधर हुआ औऱ उन्होंने दम्बोधभव का एक कवच तोड़ दिया औऱ वरदान के चलते नर की मृत्यु हो गयी। दम्बोधभव ये देखकर खुश हुआ किन्तु उसकी ख़ुशी ज़्यदा देर ना टिक पायी क्युकी नारायण तपस्या से उठकर आये औऱ नर को अपनी शक्तिओं से जीवित कर दिया। फिर नारायण ने युद्ध किया औऱ नर तपस्या मे बैठे रहे । इसी तरह बारी बारी युद्ध करके नर औऱ नारायण ने उस असुर के 999 कवच तोड़ डाले ।
अपनी मृत्यु को समीप आता देख वो डर के मारे भाग खड़ा हुआ औऱ सूर्यदेव के पास पुहंचा औऱ उनसे अपने प्राण बचाने की भीख मांगी । अब सूर्यदेव अपने भक्त की रक्षा क्यों ना करते,उन्होंने दम्बोधभव को अपने पीछे छुपा लीया ।नर औऱ नारायण वंहा आये औऱ उन्होंने सूर्य देव से दम्बोधभव को उनके हवाले करने बोला किन्तु अपने भक्त की रक्षा करने के लिए सूर्य देव ने नर नारायण को उस राक्षस को नहीं सौंपा।
सूर्यदेव को श्राप:
क्रोध मे आके नर नारायण ने श्राप दिया के जिस तरह आप इसकी रक्षा अपने बेटे की तरह कर रहे है,अगले जन्म मे ये आपका ही पुत्र होगा औऱ आपका ये कवच भी इसकी मृत्यु नहीं रोक पायेगा औऱ इसका वध करने के लिए हम भी दुबारा आएंगे । औऱ नियति का नियम है के जो श्राप एक बार देदिया वो अवश्य फलित होता है औऱ वो ही हुआ ।
अगले जन्म मे नर ने अर्जुन के रूप मे जन्म लीया औऱ नारायण ने भगवान कृष्ण के रूप मे जन्म लीया।वंही दम्बोधभव ने कर्ण के रूप मे सूर्यदेव के पुत्र के रूप मे जन्म लीया औऱ जो एक कवच पिछले जन्म मे शेष रह गया था वो उसी कवच के साथ पैदा हुए थे । श्री कृष्ण ये सब जानते थे इसलिए उन्होंने इंद्रदेव को ब्राह्मण का रूप बनाकर कर्ण से कवच औऱ कुण्डल लेने के लिए भेजा । औऱ उसी कवच के निकल जाने के बाद कर्ण को अर्जुन मार पाए ।
सीख :
इस कथा से हमें यह सीख मिलती है कि नियति को कोई नहीं टाल सकता, लेकिन व्यक्ति अपने कर्मों से अपनी पहचान बनाता है। कर्ण का जीवन इस बात का उदाहरण है कि चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थितियाँ हों, सच्चा योद्धा वही है जो अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करे।