कन्नप्पा- भारत की भूमि सदा से ही संतों, भक्तों और तपस्वियों की जन्मस्थली रही है। ऐसे ही महान भक्तों में से एक हैं श्री कन्नप्पा नयनार, जिन्हें भगवान शिव के प्रति अपनी अतुलनीय भक्ति के लिए जाना जाता है।

भक्त कन्नप्पा का जन्म दक्षिण भारत के एक जनजातीय परिवार में हुआ था। उनका असली नाम थिन्गलैयन था, लेकिन भक्ति में उनकी विशिष्टता के कारण उन्हें कन्नप्पा के नाम से जाना गया। वे एक शिकारी थे और जंगल में पशु शिकार कर अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। उनका बचपन अन्य आम जनजातीय बालकों की तरह ही बीता, लेकिन उनके हृदय में सहज करुणा, प्रेम और सत्यनिष्ठा भरी हुई थी।
कन्नप्पा को जब पहली बार भगवान शिव के एक शिवलिंग के दर्शन हुए, तो उनके हृदय में अचानक अद्भुत भाव उत्पन्न हुआ। वह शिवलिंग एक निर्जन स्थान पर स्थित था और वहाँ कोई पुजारी नहीं था जो उसकी देखभाल करता हो। कन्नप्पा ने यह निर्णय लिया कि वह स्वयं भगवान की सेवा करेगा।
चूंकि वह किसी पूजा विधि से परिचित नहीं था, उसने अपनी भक्ति अपने तरीके से प्रकट करनी शुरू की। वह भगवान को जंगल से लाए गए फूल, फल, मांस और जल अर्पित करता। ये वस्तुएँ पारंपरिक पूजा के अनुसार अशुद्ध मानी जाती थीं, फिर भी उनकी भावना में कोई खोट नहीं थी।
वहाँ का एक पारंपरिक ब्राह्मण पुजारी, जो नियमपूर्वक पूजा करता था, कन्नप्पा की पूजा शैली देखकर क्रोधित हो गया। उसे यह पवित्रता का उल्लंघन लगा। लेकिन जब उसने भगवान शिव से संकेत मांगे, तो उसे यह ज्ञात हुआ कि भगवान शिव स्वयं कन्नप्पा की पूजा से अत्यंत प्रसन्न हैं।
एक दिन भगवान शिव ने कन्नप्पा की भक्ति की परीक्षा लेने का निर्णय लिया। शिवलिंग की एक आँख से रक्त बहने लगा। यह देखकर ब्राह्मण पुजारी घबरा गया, लेकिन कुछ नहीं कर सका। जब कन्नप्पा आया और यह दृश्य देखा, तो वह अत्यंत व्याकुल हो गया। उसने अपने पास कोई उपाय न देखकर अपनी एक आँख निकालकर शिवलिंग पर चढ़ा दी, जिससे रक्त बहना बंद हो गया।
लेकिन तभी शिवलिंग की दूसरी आँख से भी रक्त बहने लगा। इस बार कन्नप्पा ने अपनी दूसरी आँख भी अर्पित करने का निश्चय किया। लेकिन वह जानता था कि एक बार आँख निकाल देने के बाद वह देख नहीं सकेगा, इसलिए उसने अपने पैर के अंगूठे को निशान के रूप में शिवलिंग पर रखा ताकि सही स्थान पर आँख चढ़ा सके।
जब वह दूसरी आँख भी निकालने ही वाला था, तभी भगवान शिव प्रकट हो गए और उन्होंने उसे रोक लिया। भगवान महादेव ने कहा, “हे भक्त! मैं तेरी भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हूँ। तूने जो प्रेम, समर्पण और साहस दिखाया है, वह अनमोल है।” उन्होंने कन्नप्पा को अपनी गोद में उठा लिया और उसे दिव्य दर्शन दिए।
कन्नप्पा को 63 नयनारों में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। नयनार वे महान भक्त थे जो भगवान शिव के प्रति अद्वितीय भक्ति से ओत-प्रोत थे। तामिल साहित्य में उन्हें अत्यंत श्रद्धा से याद किया जाता है। कन्नप्पा नयनार की कथा यह सिद्ध करती है कि भक्ति में जाति, भाषा, कर्मकांड – किसी भी सामाजिक रेखा का बंधन नहीं होता। केवल अच्छे मन से किया गया समर्पण ही भगवान को प्रिय है।
कन्नप्पा की कथा केवल एक भक्त की कहानी नहीं है, यह एक संदेश है – कि ईश्वर की भक्ति में दिल की भावना ही सबसे महत्वपूर्ण है। यह कथा हमें यह भी सिखाती है कि जब कोई भक्त संपूर्ण रूप से ईश्वर को समर्पित हो जाता है, तो ईश्वर स्वयं उसकी परीक्षा लेते हैं और अंत में उसे अपना बना लेते हैं।
उनकी यह कथा यह भी दिखाती है कि भक्ति का स्वरूप कोई पूर्व निर्धारित नियमों से बंधा नहीं होता। समाज ने चाहे जिन रीति-रिवाजों को पूजा का रूप दिया हो, ईश्वर की दृष्टि में केवल सच्चा भाव और निःस्वार्थ प्रेम ही मायने रखता है।
आज भी दक्षिण भारत के अनेक मंदिरों में कन्नप्पा नयनार की मूर्तियाँ स्थापित हैं। विशेष रूप से आंध्र प्रदेश स्थित शिव मंदिर से उनका गहरा संबंध है। यह वही स्थान है जहाँ उन्होंने अपनी आँखें भगवान शिव को अर्पित की थीं। यहाँ आने वाले भक्त उनकी कथा सुनते हैं और उनसे निष्कलंक भक्ति का आदर्श ग्रहण करते हैं।