हिंदू धर्म में असुरों और देवताओं के बीच संघर्ष की अनेक कथाएँ पाई जाती हैं। इनमें से एक महत्वपूर्ण कथा है अंधकासुर की, जो शिवपुराण और अन्य ग्रंथों में वर्णित है। अंधकासुर न केवल एक असुर था, बल्कि अज्ञान, अंधकार और वासना का भी प्रतीक माना जाता है। उसकी कथा हमें बुराई और अज्ञान पर ज्ञान और सत्य की विजय का संदेश देती है।
इस लेख में हम अंधकासुर के जन्म, उसके जीवन, उसके द्वारा किए गए अत्याचारों, और अंततः भगवान शिव द्वारा उसके संहार की कथा को विस्तार से जानेंगे। साथ ही, हम इस कथा के प्रतीकात्मक और दार्शनिक पक्षों पर भी चर्चा करेंगे।
अंधकासुर का जन्म
अंधकासुर के जन्म की कथा काफी रोचक है। विभिन्न पुराणों में इसके जन्म को लेकर अलग-अलग कथाएँ मिलती हैं, लेकिन मुख्य रूप से यह कथा शिवपुराण में विस्तृत रूप से वर्णित है।
ब्रह्मदेव का वरदान और अंधक का जन्म
कथा के अनुसार, एक बार भगवान शिव बैठे हुए संसार की और देख रहे थे, तभी माता पार्वती भगवान शिव के पास आयी और मज़ाक मे भगवान शिव की आँखों पर हाथ रख दिया। इसे पुरे संसार मे अंधकार हो गया। संसार से अंधकार दूर करने के लिए महादेव ने अपना त्रिनेत्र खोल दिया, भगवान शिव के तीसरे नेत्र की ऊर्जा से माता पार्वती के हाथ पर पसीना आ गया और वो पसीना पर गिर गया जिससे एक भयानक दिखने वाले एक बालक का जन्म हुआ जिसे देख कर माता पार्वती भी भयभीत हो गयी। ये बालक जन्म से ही अंधा था इसलिए उसका अंधक और अंधकासूर पड़ा।
उसी समय हिरण्याक्ष नाम का एक महा असुर महादेव की साधना मे लीन था और वो वरदान मे पुत्र चाहता था। तब भगवान शिव ने प्रसन्न होकर अंधक को हिरण्याक्ष को दे दिया। क्योकि अंधक महादेव और देवी पार्वती की नकारात्मक ऊर्जा से उत्तपन हुआ था तो उसमे शुरू से ही आसुरी गुण थे। हीरान्याक्ष को भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर उसका अनत कर दिया था।
अपने पिता की मृत्यु के बाद, उसने भी कठोर तपस्या की और ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया। ब्रह्माजी ने उसे वरदान दिया कि वह केवल तभी मारा जा सकेगा जब वह अपनी बहन या माता के साथ विवाह करने की इच्छा करेगा। इस वरदान के कारण अंधकासुर अत्यंत शक्तिशाली बन गया और उसने तीनों लोकों में आतंक मचाना शुरू कर दिया।
अंधकासुर का शासन और अत्याचार
अंधकासुर को वरदान मिलने के बाद, उसने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया। वह निरंतर युद्ध करता और देवताओं, ऋषियों तथा साधुओं को परेशान करता। उसका मुख्य उद्देश्य स्वर्गलोक पर अधिकार करना और इंद्र को अपदस्थ करना था।
उसने अपनी दैत्य सेना को संगठित किया और स्वर्गलोक पर आक्रमण कर दिया। उसका प्रभाव इतना बढ़ गया कि इंद्र और अन्य देवता भी उससे भयभीत हो गए। उसने यज्ञों और धार्मिक कार्यों को बाधित किया, जिससे ऋषि-मुनि भी त्रस्त हो गए। इस स्थिति में, सभी देवता भगवान शिव के पास गए और उनसे सहायता मांगी।
अंधकासुर का अहंकार और उसकी विनाशकारी इच्छा
अंधकासुर के भीतर अहंकार भर चुका था। वह स्वयं को अजेय मानने लगा और उसने सोचा कि अब वह त्रिलोकपति बन सकता है। एक दिन उसने सुना कि कैलाश पर्वत पर एक दिव्य स्त्री रहती है, जो अत्यंत सुंदर और तेजस्वी है। जब उसके सेवकों ने उसे बताया कि वह स्त्री स्वयं देवी पार्वती हैं, तो अंधकासुर के मन में कामना उत्पन्न हुई कि वह पार्वती से विवाह करे। यह वही स्थिति थी जिसका संकेत ब्रह्माजी ने अपने वरदान में दिया था। जैसे ही अंधकासुर ने यह अधर्मपूर्ण इच्छा प्रकट की, उसका विनाश निश्चित हो गया।
भगवान शिव और अंधकासुर का युद्ध
अंधकासुर ने अपनी सेना को भेजकर देवी पार्वती का अपहरण करने का आदेश दिया। जब यह समाचार भगवान शिव को मिला, तो वे अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने अपनी त्रिशूल उठाई।
इसके बाद अंधकासुर और भगवान शिव के बीच घमासान युद्ध हुआ। यह युद्ध कई दिनों तक चला। शिव ने अपने गणों के साथ मिलकर अंधकासुर की सेना का संहार किया।
अंधकासुर की अमरता और रक्तबीज जैसी शक्ति
अंधकासुर को ब्रह्माजी से यह वरदान भी प्राप्त था कि जब भी उसका रक्त धरती पर गिरेगा, वहां से नए असुर उत्पन्न होंगे। इस कारण शिव जब भी अंधकासुर पर प्रहार करते, उसका रक्त धरती पर गिरते ही नए दैत्यों का जन्म हो जाता। यह देखकर भगवान शिव ने योगमाया से शक्ति को प्रकट किया। इस शक्ति ने युद्धभूमि में उपस्थित होकर अंधकासुर के रक्त को भूमि पर गिरने से पहले ही ग्रहण कर लिया, जिससे नए दैत्यों का जन्म नहीं हुआ। अंत में, भगवान शिव ने त्रिशूल से अंधकासुर का संहार किया और उसका अंत कर दिया।
अंधकासुर का पुनर्जन्म और शिवभक्ति
कुछ ग्रंथों के अनुसार, अंधकासुर ने मरते समय भगवान शिव से क्षमा मांगी और भक्ति भाव से उनकी शरण में आ गया। उसकी भक्ति देखकर भगवान शिव ने उसे अपना गण बना लिया।
इसका तात्पर्य यह है कि अज्ञान और अहंकार से मुक्त होकर जब व्यक्ति भक्ति और सत्य की राह पर आता है, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
अंधकासुर का प्रतीकात्मक अर्थ
अंधकासुर केवल एक पौराणिक पात्र नहीं है, बल्कि यह मानवीय स्वभाव और आध्यात्मिक दर्शन का भी प्रतीक है। इसके पीछे कई गहरे अर्थ छिपे हैं:
1. अंधकार और अज्ञान का प्रतीक – अंधक का जन्म अंधेपन के साथ हुआ था, जो अज्ञान का प्रतीक है। वह सत्य और धर्म को नहीं पहचान सका, इसी कारण उसका अंत हुआ।
2. अहंकार और वासना – अंधकासुर का पतन उसकी वासना और अहंकार के कारण हुआ। यह हमें यह सिखाता है कि शक्ति और वरदान भी अहंकार में डूबे व्यक्ति का कल्याण नहीं कर सकते।
3. शिव तत्त्व की महिमा – भगवान शिव का अंधकासुर का वध यह दर्शाता है कि ज्ञान और भक्ति से अज्ञान और अहंकार का नाश संभव है।
4. शक्ति का संतुलन – अंधकासुर की शक्ति बहुत थी, लेकिन उसका प्रयोग गलत दिशा में किया गया। यह हमें यह सिखाता है कि शक्ति का सदुपयोग आवश्यक है, अन्यथा उसका दुरुपयोग विनाशकारी हो सकता है।
अंधकासुर की कथा केवल एक पौराणिक कहानी नहीं है, बल्कि यह जीवन के गूढ़ सत्यों को प्रकट करने वाली एक शिक्षाप्रद कथा है। यह हमें यह बताती है कि ज्ञान, धर्म और भक्ति के बिना शक्ति अहंकार को जन्म देती है और अंततः विनाश का कारण बनती है। भगवान शिव का अंधकासुर पर विजय यह दर्शाता है कि सत्य, प्रेम और भक्ति से बड़ा कोई नहीं है। यदि मनुष्य अपने भीतर की नकारात्मक शक्तियों को पराजित कर ले, तो वह भी दिव्यता को प्राप्त कर सकता है। इस कथा को पढ़ने के बाद हमें यह समझना चाहिए कि जीवन में सत्य, धर्म और भक्ति का पालन करना ही श्रेष्ठ मार्ग है।