वृत्रासुर और देवराज इन्द्र
इस कथा के अनुसार एक बार देवराज इंद्र के व्यवहार से रुष्ट होकर, देवताओं के गुरु बृहस्पति स्वर्गलोक से चले जाते है। देवराज को अपने इस कृत्य का खेद होता है लेकिन वे गुरु बृहस्पति से क्षमा ना मांग कर उनको जाने देते है। गुरु बृहस्पति के रूष्ट होने से देवताओ का तेज़ और बल कम होने लगता है। ये बात असुरो को जब पता लगती है तो इस बात का फायदा उठाकर स्वर्गलोक पर आक्रमण कर देते है और देवताओं को स्वर्ग से पलायन करने के लिए मजबूर कर देते है।

अपने इस दुख को लेकर देवराज सभी देवताओं के साथ भगवान ब्रह्मा के पास जाते है और उनसे प्राथना करते है के वो उनकी सहायता करें। भगवान ब्रह्मा देवराज से कहते है के जब तक गुरु बृहस्पति वापस नहीं आते तब तक तुम महर्षि तवाष्टा के पुत्र विश्वारुप को अपना गुरु बनालो, तुम्हारा कल्याण होगा। देवराज इंद्र ऐसा ही करते है और विश्वारुप को अपने स्वर्ग का पुरोहित बना लेते है।
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विश्वरुप जो की एक विद्वान ऋषि थे, उन्होंने देवराज के लिए यज्ञ किये जिससे देवताओं का बल लोट आया और देवताओं ने असुरो को हराकर स्वर्गलोक को वापस पर लिया। विश्वरूप के तीन सर थे और उनके पिता तवाष्टा एक ब्राह्मण थे और माता असुर कुल की थी। इसलिए विश्वरूप को असुरो के प्रति भी थोड़ी संवेदनाये थी जिस वज़ह से वे यज्ञ मे अपने दो मुख से देवताओं को आहुति देते थे और एक मुख से असुरो के लिए।
एक दिन देवराज ने उन्हें ये करते हुए देख लिया और क्रोध मे आकर उन्होंने विश्वरुप के तीनो सर तलवार से काट दिए। ये सब देखकर महर्षि तवाष्टा ने बदला लेने के लिए एक महायज्ञ किया जिससे एक महाअसुर की उत्तपत्ति जिसका नाम वृत्रासुर था।

वृत्रासूर देखने मे बड़ा भयंकर था, वो इतना विशाल था के उसने पुरे आकाश को धक् लिया था। कई कथाओं मे कहा जाता है के उसने पूरी पृथ्वी के पानी पर अपना नियंत्रण कर लिया था, और कंही कंही कहा जाता है के उसने तीनो लोको को ही धक् लिया था। उसकी इसी धक् लेने की क्षमता के कारण उसका नाम वृत्रासूर पड़ा था।
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वृत्रासुर ने अपने जनक महर्षि प्रजापति तवाष्टा से आदेश माँगा के उसे क्या करने के लिए उत्पन्न किया गया है तो इस महर्षि ने कहा के इंद्र ने मेरे पुत्र की हत्या की है तुम्हे जाकर इंद्र को मृत्यु दंड देनी है। आदेश पाकर वो देवराज से युद्ध करने पहुंचा और उसने युद्ध मे सभी देवताओं सहित देवराज को भागने पर विवश कर दिया।
देवराज इंद्र अपनी रक्षा के भगवान श्री हरी विष्णु के पास पुहंचे। भगवान विष्णु ने इंद्र से कहा के तुम वृत्रासुर के बल के आगे नहीं टिक सकते तो तुम एक काम करो। तुम महर्षियो के साथ जाओ और जाकर वृत्रासुर से मित्रता करो और जब सही समय होगा तो वृत्रासुर को मरने के लिए तुम जिस अस्त्र या शस्त्र का प्रयोग करोगे मे उस पर आगे वृजमान हो जाऊंगा।

देवराज ने ऐसा ही किया और ऋषि मुनियो सहित वृत्रासुर के पास पुहंचे। ऋषियों ने वृत्रासुर से आक्रमण ना करने का आग्रह किया और वृत्रासुर ने वैसे ही किया क्योकि वो सिर्फ देवराज को नष्ट करना चाहता था और बाकी सभी बड़ो और ऋषिओ का वह आदर करता था। सभी ऋषिओ ने वृत्रासुर को देवराज से सन्धि करने को कहा। इस पर वृत्रासुर ने कहा के ये नहीं हो सकता क्योकि देवराज कुछ भी हो मुझे नष्ट करना चाहते है और मेरा जन्म भी देवराज को नष्ट करने क लिए हुआ है।
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किन्तु आप सब मेरे आदरणीय है अगर आप सब मुझे आशीर्वाद दे की ना मे दिन मे मरू ना रात मे, ना किसी अस्त्र से ना शस्त्र से, ना किसी लकड़ी से ना किसी धातु से। अगर आप सब ये आशीर्वाद मुझे देते है तो आपका ये प्रस्ताव मानने को तैयार हूं। ऋषियों ने ऐसा ही किया और उसे ये वरदान देके दोनों की सन्धि करा के वंहा से चले गए।
देवराज को इस चीज की प्रसन्ता भी थी के जो भगवान विष्णु ने कहा था वो हो गया और साथ ही दुख भी के अब ऋषियों के वरदान की वजह से वृत्रासुर को मरना और कठिन हो गया है। कुछ समय इसी तरह बीत गया और एक दिन देवराज को मौका मिला वृत्रासुर को मरने का।
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